ब्रह्मसूत्र भाष्य हिन्दी PDF Brahmasutra Sankara Bhashya

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अध्यास भाष्य

तुम और मैं प्रत्ययगोचर विषय और विषयी का, जो अंधकार और प्रकाश के समान विरुद्ध स्वभाव वाले हैं, तादात्म्य युक्त नहीं है, ऐसा सिद्ध होने पर, उनके धर्मों का भी तादात्म्य नितरां नहीं बन सकता, यह सिद्ध ही है।

इसलिए मैं प्रत्ययगोचर, जो चिदात्मक विषयी है, उसमे तुम प्रत्ययगोचर, जो विषय है, उसका एवं उसके धर्मो का अध्यास तथा इसके विपरीत विषय में विषयी तथा उसके धर्मों का अध्यास मिथ्या है, ऐसा युक्त है। तो भी धर्म और धर्मी, जो कि अत्यंत भिन्न हैं, इनका परस्पर भेद न समझकर, अन्योन्य में अन्योन्य के स्वरूप और अन्योन्य के धर्म का अध्यास करके, सत्य (अपरिवर्तनशील) और अनृत (परिवर्तनशील) का मिथुनीकरण करके, मैं यह और मेरा यह, ऐसा मिथ्याज्ञाननिमित्त यह नैसर्गिक लोकव्यवहार चलता है।

पूछते हैं कि यह अध्यास क्या है ?

  • इसपर कहते हैं—स्मृतिरूप पूर्वदृष्ट का दूसरे में जो अवभास है, वही अध्यास है।
  • कुछ लोग एक में दूसरे के धर्म के आरोप को अध्यास कहते हैं।
  • कुछ लोग कहते हैं जिसमें जिसका अध्यास है
  • उनका भेद न समझने के कारण होने वाला भ्रम अध्यास है।
  • कुछ लोग जिसमें जिसका अध्यास है उसमे विरुद्ध धर्मवाले के भाव की कल्पना को अध्यास कहते हैं।
  • फिर भी, सभी मतों में अन्य में अन्य के धर्म का अवभास’ इसका व्यभिचार नहीं है।
  • इसी प्रकार, लोकव्यवहार में भी यही अनुभव है कि शुक्ति ही रजत के समान अवभासित होती है तथा एक चंद्रमा ही दूसरे के साथ मालूम पड़ता है।
  • अविषय प्रत्यगात्मा में विषय और विषय के धर्मों का अध्यास कैसे हो सकता है
  • सब लोग पुरोवर्ती विषय मे ही अन्य विषय का अध्यास करते हैं।
  • क्या ऐसा कहते हो कि ‘तुम’ इस प्रत्यय के अयोग्य प्रत्यगात्मा अविषय है ?

अथातो जिज्ञासा – ब्रह्मसूत्र भाष्य हिन्दी PDF

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  • जिस वेदान्त मीमांसा लाख कि हमें व्याख्या करना चाहते हैं, उसका यह आदि सूत्र है।
  • यहाँ अथ शब्द क्रम के अर्थ मे समझा जाना चाहिए
  • न कि आरंभ के अर्थ में, क्योंकि ब्रह्म जिज्ञासा कोई वस्तु नहीं जिसका आरंभ किया जा सके।
  • और मंगल अर्थ का तो वाक्य के अर्थ में समन्वय ही नहीं होता।
  • इसलिए अन्य अर्थ में प्रयुक्त हुआ अथ शब्द श्रवण द्वारा मंगल का प्रयोजक होता है।
  • जब यह निश्चय हो गया कि अथ शब्द क्रम के अर्थ में प्रयुक्ता हुआ है तो यह भी कहना चाहिए कि –
  • ब्रह्म जिज्ञासा का पूर्वप्रकृत क्या है अर्थात् वह क्या है जिसके होने पर ही ब्रह्म जिज्ञासा संभव है।
  • जैसे धर्म जिज्ञासा पूर्व प्रकृत के रूप में वेदाध्ययनकि अपेक्षा रखती है.
  • उसी प्रकार ब्रह्मजिज्ञासा भी नियम से पूर्व मे रहने वाली जिस वस्तु की अपेक्षा रखती है. उसे कहना चाहिए।
  • यहाँ स्वाध्याय को पूर्वप्रकृत नहीं कह सकते क्योंकि वह तो ब्रह्मजिज्ञासा और धर्मजिज्ञासा दोनों में ही समान है।

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