सच्चा धर्म क्या है पीडीऍफ़ इन हिंदी Sachcha Dharm Konsa Hai

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जब हम धर्म को इस पहलु (दृष्टि) से देखते हैं कि वह धर्मनिष्ठा के अर्थ में एक मानसिक अवस्था है तो उसका तात्पर्य यह होता है कि:

“एक अदृश्य परम अस्तित्व के वजूद की आस्था रखना, जो मानव से संबंधित कार्यों का उपाय, व्यवस्था और संचालन करती है, और वह ऐसी आस्था है जो उस परम और दिव्य अस्तित्व की लोभ (रूचि) और भय के साथ, विनय करते हुए और प्रतिष्ठा व महानता का वर्णन करते हुए उसकी आराधना करने पर उभारती है।” और संछिप्त वाक्य में यह कह सकते हैं कि:

धर्म का अर्थ – सच्चा धर्म क्या है

“एक अनुसरण और पूजा पात्र परमेशवरिक अस्तित्व पर विश्वास रखना।” किन्तु जब हम उसे इस पहलु (दृष्टि) से देखते हैं कि वह एक बाहरी वास्तविकता है तो हम उसकी परिभाषा इस प्रकार करेंगे कि वहः

“समस्त काल्पनिक सिद्धान जो उस ईश्वरीय शक्ति के गुणों को निर्धारित करते हैं और समस्त व्यवहारिक नियम जो उसकी उपासना – इबादत की विधियों (ढंग और तरीके) की रूप रेखा तैयार करते हैं।”

धर्मों के प्रकार – सच्चा धर्म क्या है

अध्ययन कर्ता इस बात से परिचित हैं कि धर्म के दो वर्ग (प्रकार) हैं:

आसमानी या पुस्तक-सम्बन्धी धर्म :

अर्थात जिस धर्म की कोई (धर्म) पुस्तक हो जो आकाश से अवतरित हुई हो, जिसमें मानव जाति के लिए अल्लाह तआला का मार्गदर्शन हो, उदाहरण स्वरूप “यहूदियत” जिसमें अल्लाह तआला ने अपनी पुस्तक “तौरात” को अपने संदेशवाहक “मूसा अलैहिस्सलात वस्सलाम पर अवतरित किया।

  • और जैसेकि “ईसाईयत” (CHRISTIANITY) जिसमें अल्लाह तआला ने
  • अपनी पुस्तक “इन्जील” को अपने संदेशवाहक ईसा अलैहिस्सलात वस्सलाम पर अवतरित किया।
  • और जैसेकि “इस्लाम” जिसमें अल्लाह तआला ने “कुरआन” को
  • अपने अन्तिम संदेशवाहक और दूत “मुहम्मद” पर अवतरित किया।
  • इस्लाम और अन्य किताबी (पुस्तक-सम्बन्धी, आसमानी) धर्मों के मध्य अन्तर यह है कि
  • अल्लाह तआला ने इस्लाम के मूल सिद्धान्तों और उसके मसादिर (स्रोतों) की सुरक्षा की है,
  • क्योंकि यह मानव जाति के लिए अन्तिम धर्म है, इसलिए यह हेर-फेर और परिवर्तन से ग्रस्त नहीं हुआ है,
  • जबकि दूसरे धर्मों के मसादिर (स्रोत) और उनकी पवित्र पुस्तकाएं नष्ट होगई
  • और उनमें हेरफेर, परिवर्तन और सन्शोधन किया गया।

मूर्तिपूजन और लौकिक धर्मः

  • जिसकी निस्बत (संबंध) धरती की ओर है आकाश की ओर नहीं है,
  • और मनुष्य की ओर है अल्लाह की आरे नहीं है,
  • उदाहरणतः बुद्ध मत, हिन्दू मत, कन्फूशियस, ज़रतुश्ती, और इसके अतिरिक्त संसार के अन्य धर्म ।
  • यहाँ पर स्वतः एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठ खड़ा होता है और वह यह कि :
  • क्या एक बुद्धिमान प्राणी वर्ग मनुष्य जाति को यह शोभा देता है कि
  • वह अपने ही समान किसी प्राणी वर्ग को पूज्य मान कर उसकी उपासना करे ?!

चाहे वह कोई मनुष्य हो या पत्थर (मूर्ति), चाहे गाय हो या कोई अन्य वस्तु और क्या उसका जीवन सौभाग्य हो सकता है और उसके कार्य समूह और समस्याएं व्यवस्थित हो सकती हैं जबकि वह ऐसी व्यवस्था और शास्त्र व संविधान | की पाबन्दी करने वाला है जिसे ‘ए’ टू ‘जेड’ मनुष्य ने बनाया है? !

क्या मनुष्य को धर्म की आवश्यकता है?

मनुष्य के लिए सामान्य रूप से धर्म की, और विशेष रूप से इस्लाम की आवश्यकता, कोई द्वितीय और अमुख्य (महत्वहीन) आवश्यकता नही है, बल्कि यह एक मौलिक और बेसिक आवश्यकता है, जिसका संबंध जीवन के रत्न (सार). ज़िन्दगी के रहस्य और मनुष्य की अथाह गहराईयों से है।

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