वेदांत दर्शन गीता प्रेस पीडीऍफ़ Vedant Darshan Gita Press PDF ब्रह्मसूत्र गीता प्रेस गोरखपुर pdf vedant darshan book pdf IN HINDI FREE DOWNLOAD
महर्षि वेदव्यासरचित ब्रह्मसूत्र बड़ा ही महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें थोड़ेसे शब्दों में परब्रह्मके स्वरूपका सांगोपांग निरूपण किया गया है, इसीलिये इसका नाम ‘ब्रह्मसूत्र’ है। यह ग्रन्थ वेदके चरम सिद्धान्तका निदर्शन कराता है, अतः इसे ‘वेदान्त दर्शन’ भी कहते हैं। वेदके अन्त या शिरोभाग- ब्राह्मण, आरण्यक एवं उपनिषद् के सूक्ष्म तत्त्वका दिग्दर्शन करानेके कारण भी इसका उक्त नाम सार्थक है।
वेद के पूर्वभाग की श्रुतियोंमें कर्मकाण्डका विषय है, उसकी समीक्षा आचार्य जैमिनिने पूर्वमीमांसा सूत्रोंमें की है। उत्तरभागकी श्रुतियोंमें उपासना एवं ज्ञानकाण्ड है; इन दोनोंकी मीमांसा करनेवाले वेदान्त- दर्शन या ब्रह्मसूत्रको ‘उत्तरमीमांसा’ भी कहते हैं। दर्शनोंमें इसका स्थान सबसे ऊँचा है
क्योंकि इसमें जीवके परम प्राप्य एवं चरम पुरुषार्थका प्रतिपादन किया गया है। प्रायः सभी सम्प्रदायोंके प्रधान प्रधान आचार्योंने ब्रह्मसूत्रपर भाष्य लिखे हैं और सबने अपने-अपने सिद्धान्तको इस ग्रन्थका प्रतिपाद्य बतानेकी चेष्टा की है। इससे भी इस ग्रन्थकी महत्ता तथा विद्वानोंमें इसकी समादरणीयता सूचित होती है। प्रस्थानत्रयीमें ब्रह्मसूत्रका प्रधान स्थान है।
वेदांत दर्शन गीता प्रेस Vedant Darshan Gita Press
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नित्यमेव च भावात् ॥ २ । २ । १४ ॥
च-इसके सिवा (परमाणुओंमें प्रवृत्ति या निवृत्तिका कर्म स्वाभाविक माननेपर); नित्यम्-सदा; एव-ही; भावात् सृष्टि या प्रलयकी सत्ता बनी रहेगी, इसलिये (परमाणुकारणवाद असंगत है) ।
- व्याख्या- परमाणुवादी परमाणुओंको नित्य मानते हैं
- अतः उनका जैसा भी स्वभाव माना जाय, वह नित्य ही होगा।
- यदि ऐसा मानें कि उनमें प्रवृत्ति-मूलक कर्म स्वभावतः होता है
- तब तो सदा ही सृष्टि होती रहेगी, कभी भी प्रलय नहीं होगा।
- यदि उनमें निवृत्ति-मूलक कर्मका होना स्वाभाविक मानें तब तो सदा संहार ही बना रहेगा, सृष्टि नहीं होगी।
- यदि दोनों प्रकारके कर्मोंको उनमें स्वाभाविक माना जाय तो यह असंगत जान पड़ता है
- क्योंकि एक ही तत्त्वमें परस्परविरुद्ध दो स्वभाव नहीं रह सकते।
- यदि उनमें दोनों तरहके कर्मोंका न होना ही स्वाभाविक मान लिया जाय तब तो यह स्वीकार करना पड़ेगा कि
- कोई निमित्त प्राप्त होनेपर ही उनमें प्रवृत्ति एवं निवृत्ति-सम्बन्धी कर्म भी हो सकते हैं
- परंतु उनके द्वारा माने हुए निमित्तसे सृष्टिका आरम्भ न होना पहले ही सिद्ध कर दिया गया है
- इसलिये यह परमाणुकारणवाद सर्वथा अयुक्त है।
- सम्बन्ध – अब परमाणुओंकी नित्यतामें ही संदेह उपस्थित करते हुए परमाणुकारणवादकी व्यर्थता सिद्ध करते हैं-